प्रयागाष्टक
रामचरित मानस में गोस्वामी तुलसीदास जी ने 8 बार प्रयाग का स्मरण किया है। मोरारी बापू ने प्रयागराज कुंभ में हुई रामकथा ‘मानस-महाकुंभ’ में इसे प्रयागाष्टक नाम दिया।
1. बाल कांड में गुरु, ब्राह्मणों के बाद संतों की वंदना में उन्हें चलता-फिरता प्रयाग कहा है। यह प्रसंग पहले व दूसरे दोहे के बीच है।
मुद मंगलमय संत समाजू। जो जग जंगम तीरथराजू।
राम भक्ति जहं सुरसरि धारा। सरसइ ब्रह्म विचार प्रचारा।।
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बटु बिस्वास अचल निज धरमा। तीरथराज समाज सुकरमा।।
सबहि सुलभ सब दिन सब देसा। सेवत सादर समन कलेसा।।
अकथ अलौकिक तीरथराऊ। देइ सद्य फल प्रगट प्रभाऊ।।
दोहा- सुनि समझहिं जन मुदित मन मज्जहिं अति अनुरागा।
लहहिं चारि फल अछत तनु साधु समाज प्रयागा।।
2. बाल कांड में रामकथा के चार स्थानों में एक भारद्वाज आश्रम को बताया। यह प्रसंग बाल कांड के 43वें दोहे के बाद आता है।
भारद्वाज मुनि बसहिं प्रयागा। तिन्हहि राम पद अति अनुरागा।।
तापस सम दम दया निधाना। परमारथ पथ परम सुजाना।।
माघ मगरगत रबि जब होई। तीरथपतिहिं आव सब कोई।।
देव दनुज किंनर नर श्रेनीं। सादर मज्जहिं सकल त्रिबेनीं।।
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तहां होइ मुनि रिषय समाजा। जाहिं जे मज्जन तीरथ राजा।।
मज्जहिं प्रात समेत उछाहा। कहहिं परसपर हरि गुन गाहा।।
3. अयोध्या कांड में वनवास के दौरान रामजी सीता और लक्ष्मण के साथ प्रयाग के तट पर पहुंचते हैं। यह प्रसंग 104वें दोहे से 106वें दोहे के बीच है।
प्रात प्रातकृत करि रघुराई। तीरथराजु दीख प्रभु जाई।।
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छेत्रु अगम गढ़ु गाढ़ सुहावा। सपनेहुं नहिं प्रतिपच्छिन्ह पावा।।
सेन सकल तीरथ बर बीरा। कलुष अनीक दलन रनधीरा।।
संगम सिहासनु सुठि सोहा। छत्रु अखयबटु मुनि मनु मोहा।
चवंर जमुन अरु गंग तरंगा। देखि होहिं दुख गारिद भंगा।।
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को कहि सकइ प्रयाग प्रभाऊ। कलुष पुंज कुंजर मृगराऊ।।
अस तीरथपति देखि सुहावा। सुख सागर रघुबर सुखु पावा।।
कहि सिय लखनहि सखहि सुनाई। श्रीमुख तीरथराज बड़ाई।।
करि प्रनामु देखत बन बागा। कहत महातम अति अनुरागा।।
एहि बिधि आइ बिलोकी बेनी। सुमिरत सकल सुमंगल देनी।।
मुदित नहाइ कीन्हि सिव सेवा। पूजि जथाबिधि तीरथ देवा।।
4. अयोध्या कांड में ही भरत जी चित्रकूट जाते समय प्रयाग में स्नान करते हैं और भारद्वाज से मिलते हैं। यह प्रसंग 203वें दोहे से 211वें दोहे के बीच विस्तार से है।
दोहा- भरत तीसरे पहर कहं कीन्ह प्रबेसु प्रयाग।
कहत राम सिय राम सिय उमगि उमगि अनुराग।।
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खबर लीन्ह सब लोग नहाए। कीन्ह प्रनामु त्रिबेनिहिं आए।।
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देखत स्यामल धवल हलोरे। पुलकि सरीर भरत कर जोरे।।
सकल काम प्रद तीरथराऊ। बेद बिदित जग प्रगट प्रभाऊ।।
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भरत बचन सुनि माझ त्रिबेनी। भइ मृदु बानि सुमंगल देनी।।
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प्रमुदित तीरथराज निवासी। बैखानस बटु गृही उदासी।
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जाना मरमु नहात प्रयागा। मगन होहिं तुम्हरें अनुरागा।।
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तेहि फल कर फलु दरस तुम्हारा। सहित पयाग सुभाग हमारा।।
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धन्य धन्य धुनि गगन पयागा। सुनि सुनि भरतु मगन अनुरागा।।
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मुनि समाजु अरु तीरथराजू। सांचिहुं सपथ अघाइ अकाजू।।
5. अयोध्या कांड में जब जनकजी चित्रकूट आते हैं तो प्रयाग में स्नान करते हैं। यह प्रसंग 271वें से 272वें दोहे के बीच है।
भोरहिं आजु नहाइ प्रयागा। चले जमुन उतरन सबु लागा।।
6. अयोध्या कांड में ही जब जनकजी सीताजी से मिलते हैं तब तुलसीदास जी लिखते हैं कि उनका मन प्रयाग हो गया। यह प्रसंग 285वें से 286वें दोहे के बीच है।
उर उमगेउ अंबुधि अनुरागू। भयउ भूप मनु मनहुं पयागू।।
सिय सनेह बटु बाढ़त जोहा। ता पर राम पेम सिसु सोहा।।
7. लंका कांड में अयोध्या वापसी के समय रामजी ने सीताजी को पुष्पक विमान से प्रयागराज के दर्शन कराए। यह प्रसंग 119वें से 120वें दोहे के बीच है।
बहुरि राम जानकिहि देखाई। जमुना कलि मल हरनि सुहाई।।
पुनि देखी सुरसरी पुनीता। राम कहा प्रनाम करु सीता।।
तीरथपति पुनि देखु प्रयागा। निरखत जन्म कोटि अघ भागा।।
8. उत्तर कांड में काकभुशुंडि जी पक्षीराज गरुड़ जी रामायण की कथा सुनाते हुए श्रीराम के प्रयाग निवास का स्मरण किया। यह प्रसंग 64वें से 65वें दोहे के बीच है।
बिपिन गवन केवट अनुरागा। सुरसरि उतरि निवास प्रयागा।।